Friday, July 29, 2011

             मेरा पहला ब्लॉग पोस्ट 


  यहाँ अमेरिका में आये मुझे आये शायद १२ साल हो गए है. 
लम्बे अकेलेपन से गुजरने की वजह से इन्टरनेट पर बहुत वक़्त निकल जाता है, ऐसे ही एक दिन कुछ हिंदी ब्लोग्स पढने को मिले, और मेरी आदत बन गयी हर रोज इन ब्लोग्स को चेक करने की. ऐसे ही एक दिन मन का पाखी ब्लॉग पर कहानी पढ़ी और बस फिर तो हर रोज इंतज़ार होता अगली कड़ी का, और ऐसे ही मैं " रश्मि रविजा जी " की फैन बन गयी और एक दिन हिम्मत करके मैंने उन्हें फसबूक पर friends request भेज दी. 
 उनका बड़प्पन ही कहूँगी की उन्होंने बिना झिझके कबूल भी कर ली.  इसके लिए उनका तहे दिल से धन्यवाद.

    आज उनके ही encouragement से मैंने हिम्मत करके यह पोस्ट लिख डाली. ( हाँ इसीको लिखते लिखते शायद ६ महीने हो गए, हाहाहा )

      वैसे कोई विषय तो नहीं है मेरे पास, पर हाँ अकेलेपन पर कहीं एक लेख पढ़ा था, की अवसाद की तरह अकेलेपन को भी एक बीमारी का दर्ज़ा दे दिया जाना चाहिए. 

      लेखिका अकेले रहती है लन्दन में, हाई पेईंग जॉब है, आलीशान फ्लैट है, सब कुछ है, लेकिन अकेली. इतनी अकेली की बस कोई चाहिए उसे जिसे बात कर सके, फिर भले वो कोई भी छोटी मोटी बात हो, इधर उधर की बात. लेकिन कोई जीता जगता इन्सान चाहिए जिससे बात कर सके.  इन्टरनेट से जी नहीं भरता, टीवी से जी नहीं भरता, बस काश एक इंसान होता जिससे जी भर के बे सीर पैर की बातें कर सकती, दिल की भड़ास निकाल सकती, या फिर जिसके गले लगकर रो सकती.

    ऐसे हे एक दिन उठ कर चल देती है शौपिंग करने, किसलिए? ताकि चेक आउट करते वक़्त काशिएर से ही दो पल को बात कर लेगी.  खरीदना कुछ नहीं था, फिर भी गयी ताकि किसीसे दो बोल सुन सके दो बोल कह सके. 

      क्या मिलता है हमे बे सर पैर की बातें करके, या क्या फरक पड़ता है की कोई हमे सुनने वाला है की नहीं ?
शायद यह एहसास की हम अब भी जिंदा है, और दुनिया हमें सुन सकती है, देख सकती है.

शायद ऐसे हे अकेलेपन की वजह से आज मैंने भी हिम्मत करके यह पहला ब्लॉग लिख ही डाला.  क्यूँ ?

   कोई मतलब नहीं मेरी बातों में, लेकिन बस शायद मैं भी दिल के कोने में यही आस लिए बैठी हूँ , की रियल वर्ल्ड में तो कोई नहीं मुझे और मेरी बे सीर पैर की बातों को सुनने वाला, लेकिन शायद virtural वर्ल्ड में मुझे मेरे जैसे लोग मिल जाए.

 जो मेरी हे तरह अकेले है. अपनों से दूर , शायद अपने घर से दूर. 

कोई बेटी ब्याह के बिदेस में अकेली बैठी तरस रही है तीज त्योहारों में अडोस पड़ोस की औरतों को सजधज के पूजा पाठ और हंसी मजाक करते हुए देखने को और उनकी मस्ती में खुद भी शामिल होने को.

 कोई शायद अपने शहर या गाँव से दूर किसी बड़े शहर में ऊँची नौकरी बेहतर ज़िन्दगी के सपने लिए संघर्षरत है और ऐसे ही अक्सर बैठे बैठे याद हो आते है गाँव के खेत खलिहान, या नवरात्री में देवी के मंदिर के मेले. या गरबा देखना-खेलना .

कोई बिदेस में बसे बेटे बेटी का घर सम्हालने के चक्कर में अकेलेपन से झूझ रहे है.

और भी हजारों कारन है इंसान के अकेले रहने के.

 या फिर हर इंसान ही अकेला है कहीं ?

क्या अपनों के होते हुए भी हम अपने दिल की हर बात हर किसीसे शेयर कर पाते है ? 

ऐसी कितनी ही बातें होती है जो शायद हम चाहते हुए भी किसी न किसी कारनवश अपने करीबी को भी नहीं बता पातें. 

सच तो यह है की दुनिया में हर कोई अकेला है.  हाँ अपने होने को महसूस करने के लिए हमे एक जीते जागते इंसान  की जरुरत पड़ती है, जो हमारी बातों को विस्तार दे. 

और शायद इसीलिए लोग फेसबुक और ऑरकुट जैसी websites पर घंटो बिता देते है.

खैर उसके बारे में फिर कभी.

 पता नहीं क्या क्या लिख गयी आज मैं. 

लेकिन अगर आगे मन हुआ तो फिर जरुर लिखूंगी, अपने बारे में, दुनिया के प्रति अपने नजरिये के बारे में.

पहला ब्लॉग है, सो अगर गलतियाँ हो गयी हो तो कमेन्ट जरुर करें. सुधार की कोशिश करुँगी.